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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15534
आईएसबीएन :0

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सुनसान के सहचर

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सीधे और टेढ़े पेड़


रास्ते भर चीड़ और देवदारु के पेड़ों का सघन वन पार किया। यह पेड़ कितने सीधे और ऊँचाई तक बढ़ते चले गये हैं, उन्हें देखकर प्रसन्नता होती है। कई पेड़ पचास फुट तक ऊँचे होंगे। सीधे ऐसे चले गये हैं मानों ढाल पर लड़े गाड़ दिये हैं। मोटाई और मजबूती भी काफी है। 

इनके अतिरिक्त तेवार, दादरा, पिनखू आदि के टेढ़े-मेढ़े पेड़ भी बहुत हैं, जो चारों ओर छितराए हुए हैं। इनकी बहुत डालियाँ फूटती हैं। और सभी पतली रहती हैं। इनमें से कुछ को छोड़कर शेष ईंधन के काम आते हैं। ठेकेदार लोग इन्हें जलाकर कोयला भी बना ले जाते हैं। यह पेड़ जगह तो बहुत घेरते हैं, पर उपयोग इनका साधारण होता है। चीड़ और देवदारु से जिस प्रकार इमारती और फर्नीचर का काम होता है, वैसा इन टेढ़े-तिरछे पेड़ों से बिल्कुल भी नहीं होता। इसलिए इनकी कोई पूछ भी नहीं करता, मूल्य भी इनका बहुत सस्ता होता है। 

देखता हूँ जो पेड़ लम्बे गए हैं, उनने इधर-उधर शाखाएँ नहीं फोड़ी हैं। ऊपर को एक ही दिशा में सीधे बढ़ते गए हैं; इधर-उधर मुड़ना इनने नहीं सीखा। शक्ति को एक ही दिशा में लगाए रहने से ऊँचे उठते रहना स्वाभाविक भी है। चीड़ और देवदारु के पेड़ों ने यही नीति अपनाई है, वे अपनी इस नीति की सफलता की सर्वोन्नत मस्तक से घोषणा कर रहे हैं। दूसरी ओर टेढ़े-तिरछे पेड़ हैं, जिनका मन अस्थिर, चित्त चंचल रहा, एक ओर टिका ही नहीं, विभिन्न दिशाओं का स्वाद चखना चाहा और यह देखना चाहा कि देखें किस दिशा में ज्यादा मजा है, किधर जल्दी सफलता मिलती है? इस चंचलता में उन्होंने अनेक दिशाओं में अपने को बाँटा, अनेकानेक शाखाएँ फोड़ीं। छोटी-छोटी टहनियों से उनका कलेवर फूल गया, वे प्रसन्न भी हुए कि हमारी शाखाएँ हैं, इतना फैलाव-फुलाव है। 

दिन बीत गये। बेचारी जड़े सब शाखाओं को खूब विकसित होने के लायक रस कहाँ से जुटा पाती। प्रगति रुक गयी, टहनियाँ छोटी और दुबली रह गईं। पेड़ और तना भी कमजोर रहा और ऊँचाई भी न बढ़ सकी। अनेक भागों में विभक्त होने पर मजबूत तो रहती ही कहाँ से? बेचारे यह दादरा और पिनखू के पेड़ अपनी डालियाँ छितराये रहे, लेकिन समझदार व्यक्तियों को उनका मूल्य कुछ आँचा नहीं। उन्हें कमजोर और बेकार माना गया। अनेक दिशाओं में फैलकर जल्दी से किसी न किसी दिशा में सफलता प्राप्त करने की उतावली में अन्तत: कुछ बुद्धिमत्ता साबित न हुई। 

देवदारु का एकनिष्ठ पेड़ मन ही मन इन टेढ़े-तिरछे पेड़ों की चाल चपलता पर मुस्कराता हो, तो आश्चर्य ही क्या है। हमारी वह चंचलता जिस के कारण एक लक्ष्य पर चीड़ की तरह सीधा बढ़ सकना सम्भव न हो सका, यदि विज्ञ व्यक्तियों की दृष्टि में हमारे ओछे रह जाने का कारण हुँचता हो तो इसमें अनुचित ही क्या?

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    अनुक्रम

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया

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